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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2679
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी तृतीय प्रश्नपत्र - प्राचीन एवं मध्यकालीन काव्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)

पद

(1)

बालम, आवो हमारे गेह रे।
तुम बिन दुखिया देह रे।
सब कोई कहै तुम्हारी नारी, मोको लागत लाज रे।
दिलसे नहीं दिल लगाया, तव लग कैसा सनेह रे।
अन्न न भावै नींद न आवै, गृह बन धरै न धीर रे।
कामिनको है बालम प्यारा, ज्यों प्यासेको नीर रे।
है कोई ऐसा पर उपकारी, पिवसो कहै सुनाय रे।
अब तो बेहाल कबीर भयो है, बिन देखे जिव जाय रे॥

शब्दार्थ - बालम = प्रिय, गेह= घर, तुम्हारी नारी = अर्थात् पत्नी, कामिन = प्रेमिका, नीर = पानी, जिव = प्राण, आत्मा।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में आत्मा की परमात्मा से मिलने की आकुलता प्रदर्शित की गई है। कबीर परमात्मा अर्थात् अपने इष्ट से साक्षात्कार हेतु अत्यंत अधीर हो रहे हैं। वे स्वयं को प्रियतमा तथा ईश्वर को प्रेमी मानकर प्रेम का आह्वाहन कर रहे हैं।

व्याख्या - कबीर निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक कवि हैं। यहाँ ईश्वर को अपना पति या प्रेमी तथा स्वयं को उनकी प्रेमिका या पत्नी मानते हुए दांपत्य रति का प्रदर्शन करते हुए ईश्वर के प्रेम की साधना करने का प्रयास कर रहे हैं। कबीर आत्मा को परमात्मा का अंश स्वीकार करते हुए ईश्वर अर्थात् प्रिय को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे प्रिय आओ! और मेरे इस शरीर रूपी घर में निवास करो (आत्मा एवं परमात्मा के एकाकार होने की स्थिति की ओर संकेत किया गया है।) तुम्हारे अभाव में मेरी यह देह अत्यंत दुःख का अनुभव कर रही है। सम्पूर्ण संसार मेरे मन में तुम्हारे प्रति प्रेम को जान चुका है और वे सभी मुझे तुम्हारी पत्नी के रूप में स्वीकार करने लगे हैं। सम्पूर्ण संसार के सामने हमारे सम्बन्धों की चर्चा होने से मैं लज्जा का अनुभव कर रही हूँ। परन्तु हे प्रिय ! जब तक तुमने मेरे प्रेम का प्रतिउत्तर नहीं दिया (अर्थात् आत्मा को परमात्मा में नहीं मिलाया) तब तक इस स्नेह का कोई महत्व नहीं है। (आत्मा हर स्थिति में परमात्मा से एकाकार होना चाहती है।) हे प्रिय ! तुम्हारे साक्षात्कार के बिना मुझे न तो भोज्य पदार्थों से संतुष्टि प्राप्त होती है और न ही मैं निद्रा का सुख प्राप्त कर पाती हूँ। (अर्थात् मेरी शारीरिक आवश्यकता शून्य होती जा रही है) न तो मुझे घर में चैन आता है और न ही अन्यत्र कहीं। काम पीड़ित प्रेमिका को अपना प्रियतम उसी प्रकार प्यारा होता है जिस प्रकार प्यासे को जल। इस संसार में कोई ऐसा उपकारी पुरुष है, जो मेरी पीड़ा को प्रियतम (ईश्वर) तक पहुँचा सके? अब तो कबीर की आत्मा अपने पति परमात्मा के साक्षात्कार के लिए इतनी अधिक व्याकुल हो रही है कि उनके दर्शन न होने की स्थिति में उसके प्राणों पर भी संकट उत्पन्न हो गया है। आशय यह है कि परमात्मा द्वारा आत्मा रूपी पत्नी को अंगीकार नहीं किए जाने तक उसे संतुष्टि नहीं मिलेगी। उसके विरह की एकमात्र औषधि प्रियतम से मिलन ही है।

विशेष -

(1) कवि ने आत्मा परमात्मा के सम्बन्धों पर प्रकाश डालते हुए आत्मा को स्त्री के रूप में प्रस्तुत किया है।
(2) स्नेह की अभिव्यक्ति हृदय से लगाकर ही की जाती है यही भाव 'दिल से नहीं लगाया' पंक्तियों में प्रकट हुआ है।
(3) कबीर के परमात्मा के प्रति वियोग की मार्मिक व्यंजना प्रस्तुत हुई है।
(4) ईश्वर के साक्षात्कार की उत्कट अभिलाषा प्रकट हुई है।
(5) भाषा में लाक्षणिकता का प्रभाव है, भावात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति हुई है।
(6) उत्प्रेक्षा, अनुप्रास, तद्गुण अलंकार हैं। माधुर्य - गुण।

(2)

अवधू मेरा मन मतिवारा।
उन्मुनि चढ़ा गगन रस पीवै त्रिभुवन भया उजियारा।
गुड करि ज्ञान ध्यान करि महुवा, भव-भाठी करि भारा।
सुषमन नारी सहजि समांनी, पीवै पीवनहारा।
दोई पुड़ जोड़ि चिगाई, भाठी चुआ महारस भारी।
काम-क्रोध दुइ किया पलीता, छूटि गई संसारी।
सुनि-मंडलमे मँदला बाजै तहँ मेरा मन नाचै।
गुरुप्रसादि अमृत फल पाया सहजि सुषमनां काछै।
पूरा मिल्या तबै सुख उपज्यौ तपकी तपनि बुझानी।
कहै कबीर भव-बंधन छूटै, जोति हि जोति समानी॥

शब्दार्थ - अवधू = अवधूत साधक, उन्मनि = उन्मुक्त, भाठी = भट्टी, पलीता = बारूद में लगी सुलगाने वाली डोरी, सुषमनां = सुषुम्ना नाड़ी, स्वच्छन्द भव - दुःख।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग प्रस्तुत पद में कबीर साधनावस्था में आनंदित शिष्य की सहजावस्था का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या - कबीर कहते हैं कि साधनावस्था के चरम पर पहुँच कर शिष्य का मन आनन्द से मतवाला हो जाता है। (अर्थात् गुरू कृपा के साथ साधना की अवस्थाओं को पार करते हुए अंतिम चरण पर पहुँचते ही साधक आनन्द के मद से उन्मत्त हो जाता है। उस अवस्था में चेतना की ऊर्ध्वगामी धारा अमृतपान करती है तथा ज्ञान का उजियारा सर्वत्र बिखरा प्रतीत होता है। सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर से होकर ऊपर जाने पर मूलाधार के षट्चक्रों को साधना द्वारा भेदकर) ज्ञान रूपी गुड़ और ध्यान रूपी महुए चढ़ाने से निर्मित सोम रस के पान का सौभाग्य प्राप्त होता है। वहाँ सुषुम्ना नाड़ी को जाग्रत करके सहजावस्था को पहुँचा जाता है तथा ब्रह्मरन्ध्र के स्त्रावित होने से अमृत रूपी रस की वर्षा होती है जिसे पीकर समस्त सांसारिक विकारों से मुक्ति मिल जाती है। आशय यह है कि साधना के चरमोत्कर्ष पर पहुँचते ही सहस्त्र दल कमल खिल जाता है और समस्त सांसारिक तापों का शमन हो जाता है। कबीर कहते हैं कि उसे यह सहज अवस्था ज्ञान रूपी गुड़ व ध्यान रूपी महुए को सांसारिक अनुभव रूपी भट्टी पर पकाकर बनाई गई मदिरा को पीकर प्राप्त हुई है। इस तरह काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह आदि सांसारिक विषय वासनाएँ भी जलकर भस्म हो जाती हैं और साधक सांसारिक मायाजाल तथा भ्रम के आवरण से मुक्त हो जाता है। जब शून्य मंडल में अनहद नाद बजने लगता है तब कबीर का साधक मन आनंदित होकर नृत्य करने लगता है। कबीर अपनी साधना की सफलता का श्रेय अपने गुरू को देते हुए कहते हैं कि गुरु के प्रसाद से ही वे साधना के पड़ावों को पार करते हुए अमृत फल को प्राप्त कर पाए हैं। (अर्थात् गुरु की कृपा द्वारा साधक को साधनावस्था के चरम पर पहुँचने का गौरव प्राप्त होता है।) साधना में यह सहजावस्था सुषुम्ना नाड़ी के मार्ग से गुजरकर ही प्राप्त की जा सकती है। कबीर कहते हैं कि यह आनन्द साधना को पूर्ण करके ही प्राप्त होता है। साधना के पूर्ण होने पर उत्पन्न हुए अनिर्वाच्य सुख द्वारा समस्त सांसारिक ज्वालाएँ स्वतः बुझ जाती हैं। कबीर कहते हैं कि इस सहजावस्था में पहुँचकर साधक सांसारिक दुःखों के बंधनों से मुक्त हो जाता है और परमात्मा की ज्योति में समाकर शुद्ध व चैतन्य स्वरूप हो जाता है। इस प्रकार कबीर ने गुरू की कृपा द्वारा साधना की पराकाष्ठा पर पहुँचकर साधक की सहज व मुक्त दशा के आनन्द का भाव विभोरता के साथ वर्णन किया है।

विशेष-
(1) मन की मुक्तावस्था की प्रक्रिया मदिरा के निर्माण की प्रक्रिया द्वारा बताई गई है - "गुड़ की .... .... करि भारा।"
(2) साधनात्मक रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है।
(3) नाथ सम्प्रदाय के समान सुषुम्ना, गगन मंडल अमृत रस आदि प्रतीकात्मक शब्दावली का प्रयोग हुआ है।

 

(3) 

अवधू कुदरतिया ----------- सो छाजै।
अवधू, कुदरतिकी गति न्यारी।
रंग निवाज करै वह राजा भूपति करै भिखारी॥
ये ते लवंगहिं फल नहिं लागे, चंदन फूल न फूलै।
मच्छ शिकारी रमै जंगलमे, सिंह समुद्रहि झूलै॥
रेड़ा रूख भया मलयागिर, चहुँ दिसि फूटी बासा।
तीन लोक ब्रह्मांड खंउमें देखे अंध तमासा॥
पंगुल मेरु सुमेरु उलंधै त्रिभुवन मुक्ता डोलै।
गूँगा ज्ञान-विज्ञान प्रकासे अनहद बानी बोलै॥
बाँधि अकास पताल पठावै सेस सरगरपर राजै।
कहै कबीर राम हैं राजा जो कछु करें सो छाजै॥

शब्दार्थ - कुदरतिया = प्रकृति कुदरत, छाजै = शोभा, सेस = शेषनाग, रंक = कंगाल, भूपति = राजा, रेडा = रेंड का वृक्ष।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में कबीर परमात्मा (राम) की महिमा का गुणगान कर रहे हैं।

व्याख्या - कबीर कहते हैं कि प्रकृति का खेल भी विचित्र है। यदि प्रकृति की इच्छा हो तो फकीर को राजा बनाने में देर नहीं लगाती तथा राजा पर कुपित हो तो उसे पल भर में ही भिखारी बना सकती है। (अर्थात् कुदरत की शक्ति सर्वश्रेष्ठ है।) यह प्रकृति का ही खेल है कि लौंग के पेड़ पर फल नहीं लगता तथा चन्दन का वृक्ष सुगन्ध का भण्डार होने के पश्चात् भी पुष्प से वंचित रहता है। अर्थात् हर व्यक्ति को उसके प्रारब्ध के अनुसार फल देती है। (अर्थात् किसी को धन सम्मान, पद, प्रतिष्ठा से सुसज्जित करती है तो किसी का सर्वस्व छीन लेती है।) इसी कारण चन्दन में फूल न होने पर भी उसकी सुगन्धि चहुँ ओर प्रसारित होती रहती है यह प्रकृति का ही प्रदेय है। (यदि प्रकृति चाहे तो लौंग में फल लग जाएँ और चन्दन से फूल खिलने लगे) प्रकृति के प्रताप से तो यह भी संभव है कि मगरमच्छ शिकार के लिए जंगल में भ्रमण करे और सिंह समुद्र में गोते लगाए। रेंड का वृक्ष चन्दन से फलने-फूलने लगे और चन्दन से भरे जंगलों का पहाड़ निर्मित कर दे। चारों ओर उसकी सुवास फैल जाए। अंधा त्रिलोक का दर्शन करने में समर्थ हो जाए तथा लँगड़ा व्यक्ति भी सुमेरू पर्वत को लाँघने का सामर्थ्य प्राप्त करके ब्रह्मांड के तीनों खंडों का भ्रमण कर ले। मूक (गूंगा) ज्ञान-विज्ञान की चर्चा करने लगे और अनहद नाद के गीत गाने में सक्षम हो जाए। यदि वह चाहे तो आकाश को उठाकर पाताल में फेंक दे और स्वर्ग को शेषनाग के लिए आरक्षित कर दे अर्थात् पाताल में निवास करने वाले शेषनाग को स्वर्ग का अधिकारी बना दे। प्रकृति को यह सारी शक्ति राजा राम द्वारा ही प्राप्त हुई है कि वह किसी का भी भाग्य परिवर्तित कर सकती है। इस प्रकार सबके स्वामी तो राजा राम (परमपिता परमात्मा) ही हैं। वे जो कुछ भी करें उन्हें शोभा देता है। कबीर कहते हैं कि सबको नियंत्रित करने वाली प्रकृति स्वयं श्रीराम के आदेश से ही चलती है। अतः इस संसार को नियंत्रित करने की सामर्थ्य राजा राम में ही है वे ही इस संसार को गतिशील बनाए रखते हैं।

 

विशेष-

(1) तुलसी भी कहते हैं -

मूक होई वाचाल पंगु चढ़ई गिरिवर गहन

जासु कृपा सुदयाल द्रबहु सकल कलिमल हरन॥

(2) उदाहरण, उपमा, रूपक, अनुप्रास, अलंकारों की छटा है।
(3) ईश्वर की सर्वव्यापकता का निरूपण हुआ है।

 

(4)

संतौ धागा टूटा गगन बिनसि गया, सबद जु कहाँ समाई।
ए संसा मोहि निस दिन व्यापै, कोई न कहैं समझाई॥ टेक॥
नहीं ब्रह्मंड पुंनि नाँही, पंचतत भी नाहीं।
इला प्यंगुला सुखमन नाँही, ए गुण कहाँ समाहीं।
नहीं ग्रिह द्वार कछू नहीं, तहियाँ रचनहार पुनि नाँही।
जीवनहार अतीत सदा संगि, ये गुण तहाँ समाँही॥
तूटै बँधे बँधै पुनि तूटै, तब तब होई बिनासा।
तब को ठाकुर अब को सेवग, को काकै बिसवासा॥
कहै कबीर यहु गगन न बिनसै, जौ धागा उनमाँनाँ।
सीखे सुने पढ़ें का होई, जौ नहीं पदहि समाँना॥1॥

शब्दार्थ - धागा = श्वास, शरीर माया, बिनसि = नष्ट हो गया, संसा= संशय, व्यापै परेशान किये हुए हैं, पंचतत = पंच तत्व, क्षिति, जल, पावक, गंगन, समीर, इला = इड़ा नाडी, प्यंगुला = पिंगला नाड़ी, सुखमन = सुषुम्ना नाड़ी, ग्रिह = घर, रचनहार = सर्जक, रचने वाला, उनमाँनौँ = उन्मनी अवस्था।

प्रसंग - प्रस्तुत पद 'कबीर ग्रन्थावली के पदावली से अवतरित है। इस पद में शरीर की नश्वरता पर प्रकाश डाला गया है।

व्याख्या - कबीरदास कहते हैं कि शरीर का धागा टूट गया, गगन (ध्यान की अवस्था) नष्ट हो गया। अब शब्द (नाद तत्व) कहाँ समायेगा। उसके लिए कोई स्थान ही नहीं रह गया। यह सन्देह (प्रीत) मुझे रात-दिन परेशान किये हुए है और इस बारे में मुझे कोई नहीं समझाता है। शरीर का श्वास सूत्र (धागा) टूट जाने पर न ब्रह्माण्ड रहता है, न पिण्ड रहता है और न ही पंचतत्व (धरती, जल, अग्नि, गगन, वायु) रहते हैं। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना भी नहीं रहती है। समझ नहीं आता है कि उनके गुण कहाँ समाविष्ट हो जाते हैं। वहाँ न तो घर, न तो द्वार और सृष्टा भी नहीं रह जाता है। ये गुण केवल जीवन के हर्त्ता अर्थात् जीवन के नियामक, मायातीत ईश्वर में समाविष्ट हो जाते हैं। विनाश फिर निर्माण, फिर विनाश। इस प्रकार यह विनाश का खेल चलता रहता है। तब का स्वामी अबका सेवक बन जाता है। कौन किस पर विश्वास करे? कबीर कहते हैं कि ब्रह्म रूप गगन का कभी नाश नहीं होता है। यदि ध्यान का धागा अपनी अवस्था से जुड़ जाये। सीखने से पढ़ने से सुनने से क्या होता है, यदि कोई ईश्वर के चरणों में लीन नहीं हो पाता है।

विशेष -
उनमाँनाँ - यह शब्द संस्कृत के उन्मनसी शब्द से बना है इसका सामान्य अर्थ है अन्यमनस्क, संसार से उदासीन निर्लिप्त। यानि मन की वह दशा जब वह सांसारिक विषयों से पराङ्मुख होकर ईश्वरोन्मुख हो जाता है, उनमन दशा होती है। - डॉ. रामसजन पाण्डेय

 

(5)

राम तेरी माया दुंद् मचावै।
गति-मति वाकी समझ परै नहिं सुर नर मुनिहिं नचावै
का सेमरके साखा वढ़ये, फूल अनूपम वानी।
केतिक चातक लागि रहे हैं, चाखत रुवा उड़ानी॥
कहा खजूर बड़ाई तेरी, कल कोई नहीं पावै।
ग्रीखम ऋतु अब आइ तुलानी, छाया काम न आवै॥
अपना चतुर औरको सिखवै, कामिनि कनक सयानी।
कहै कबीर सुनो हो सन्तो, राम चरण रति मानी॥

शब्दार्थ - नर = मानव, सुर = देवता, कामिनी = नारी, रति = प्रेम, दुंद - उत्पात।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में कबीर ने माया के सर्वव्यापी स्वरूप का वर्णन किया है।

व्याख्या - कबीर सम्पूर्ण जगत को माया के प्रभाव से ग्रसित देखकर अपने इष्ट श्रीराम को संबोधित करते हुए कह उठते हैं कि हे प्रभु राम ! तुम्हारी माया ने तो सम्पूर्ण संसार में उत्पात मचा रखा है। इसकी तो गति ही न्यारी है। इसके भ्रमजाल को समझना तो बड़े-बड़े ज्ञानियों के लिए भी असंभव है क्योंकि इसकी चाल को तो देवता तथा ऋषि-मुनि भी बूझने में असमर्थ हैं। अतः देवताओं, मानवों और मुनियों को भी अपने संकेतों पर नचाने वाली माया से पार पाना अत्यंत कठिन है। किस प्रकार से माया सेमर के वृक्ष की शाखाओं पर सुन्दर फूलों की प्रतीति कराती है। (सेमर के पुष्प में झूठी सुन्दरता होती है उसमें न तो स्थिरता होती है और न ही सुगन्ध) और माया के प्रभाववश ही कितने चातक पक्षी स्वाति नक्षत्र की उड़ती हुई बूँदों को चखने के प्रयास में लगे रहते हैं। (चातक की प्यास स्वाती नक्षत्र में गिरने वाली बूँदों से ही तृप्त होती है) इस प्रकार यह माया ही भ्रम के आवरण का निर्माण करते हुए लोगों को निरंतर भटकाती रहती है। खजूर के पेड़ को इतना ऊँचा बना देती है कि कोई आसानी से उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता है और ग्रीष्म ऋतु की प्रचंड ऊष्मा में किसी भी प्रकार की छाया काम नहीं आ पाती। यह सब इस माया का ही प्रभाव है। (अर्थात् मानव शारीरिक सुखों तथा इस झूठे संसार की क्रियाओं को ही सत्य मानकर जीव के वास्तविक स्वरूप को पहचानने का प्रयास ही नहीं कर पाता) यह माया उस चतुर कामप्रिय विलासिनी नारी के समान है जो अपनी चतुराई (चालाकी) दूसरों को सिखाकर उसे भी अपने समान बना लेती है। (प्राणी अत्यंत सरलता से माया के प्रभाव में आ जाता है और ब्रह्म को भूलकर इस नश्वर संसार को सत्य मान लेता है। इसलिए कबीर कहते हैं कि सन्तों ! राम के चरणों में ही अपना मन लगाओ क्योंकि वही इस माया के प्रभाव से मुक्ति देने वाले हैं। अर्थात् श्रीराम के चरणों की भक्ति से ही माया के बंधन को काटा जा सकता है।

विशेष -

(1) कबीर माया को ही जीवात्मा के भटकाव का प्रमुख कारण स्वीकार करते हैं।
(2) उपमा, रूपक, अनुप्रास, उल्लेख अलंकारों का प्रयोग है।
(3) सधुक्कड़ी भाषा का प्रयोग है।
(4) श्रीराम (परमा
त्मा) की कृपा ही माया के भ्रमजाल से छुड़ा सकती है।

 

(6)

माया महा ठगनि हम जानी
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै बोलै मधुरी बाँनी
केसव के कँवला होइ बैठी सिव कै भवन भवाँनी
पंडा कै मूरति होइ बैंठी तीरथ हू मैं पाँनी
जोगी कै जोगिनि होइ बैठी राजा कै घरि राँनी
काहू के हीरा होइ बैठी काहू कै कौड़ी काँनी
भगता के भगतिनि होइ बैठी तुरिकाँ के तुरकाँनी।
दास कबीर साहेब का बंदा जाकै हाथ बिकाँनी।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पद डॉ. श्यामसुन्दर दास द्वारा सम्पादित 'कबीर ग्रन्थावली' के 'पद' शीर्षक से उद्धृत है।

प्रसंग - इस पद में माया को ठगने वाला बताया गया है।

व्याख्या - माया बहुत बड़ी ठगिनी (ठगने वाली) है, मैंने इस तथ्य को समझ लिया है। सत, रज, तम त्रिगुणों का जाल लेकर वह घूमती रहती है, केशव के साथ लक्ष्मी होकर बैठी है और शिव के घर भवानी (पार्वती) होकर बैठी है। पंडा के यहाँ मूर्ति होकर बैठी है। तीर्थों में पानी के रूप में स्थित है। योगी के यहाँ योगिनी होकर बैठी है और राजा के यहाँ रानी के रूप में विराजित है। किसी के यहाँ हीरा होकर बैठी हैं और किसी के यहाँ फूटी कौड़ी के रूप में उपस्थित है। भक्तों के यहाँ भक्तिन होकर बैठी है और तुर्क के यहाँ तुर्किनी होकर बैठी है। कबीर दास जी कहते हैं कि स्वामी भगवान के दास के हाथ यह माया बिकी हुई है।

विशेष -

(1) इस पद में माया का मानवीकरण किया गया है। स्त्री सांसारिकता में लिप्त रहती है, इसलिए कबीर माया को स्त्री रूपी मानते हैं।
(2) उपमा अलंकार का प्रयोग हुआ है।

 

 

(7)

पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्याँ दुनियाँ गति पावै, षाँड कह्याँ मुख मीठा॥ टेक॥
पावक कह्याँ मूष जे दाझैं जल कहि त्रिषा बुझाई।
बोजन कह्याँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई॥
नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूँ उड़ि जाइ जंगल में, बहुरि न सुरतै आने॥
साची प्रीति विषै माया सूँ, रि भगतनि सूँ हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यौ जमुपरि जासी॥

शब्दार्थ - बाद = ज्ञान, षाँड = खाँड, सूवा = तोता, सुरतै = यादः स्मृति !

प्रसंग - उरोक्त पद में कबीरदास पुस्तक की निरर्थकता बतलाते हुए इसी का सजीव वर्णन करते हैं।

व्याख्या - कबीरदास कहते हैं कि पंडित झूठे ज्ञान की बातें करते हैं अर्थात् वे अनुभव की बात न करके पोथी - पत्रा की बातें करते हैं। इसलिए उनकी बातों में वास्तविकता नहीं होती। खाँड कहने से जैसे मुँह मीठा नहीं हो सकता है उसी प्रकार बिना अनुभव के राम कहने से दुनिया को सद्गति प्राप्त नहीं हो सकती है। यदि आग कहने से किसी का पैर जल जाये, जल कहने से प्यास बुझ जाय और भोजन कहने से किसी की भूख मर जाये तो राम कहने से भी सभी तर सकते हैं। राम का प्रताप बिना समझे हुए मनुष्य के साथ-साथ तोता भी राम-राम का जप करता है, लेकिन यदि कभी वह उड़कर जंगल में चला जाये तो फिर वह कभी राम का स्मरण नहीं करता है।

लोग वासनाओं और माया से सच्ची प्रीति रखते हैं और हरि भक्तों की हँसी उड़ाते हैं। कबीर कहते हैं कि यदि राम नाम कहते हुए राम के प्रति प्रेम नहीं पैदा होता है तो वह यमपुरी जायेगा।

विशेष -

(1) कथनी और करनी की समता पर बल दिया गया है। यहाँ बताया गया है कि बिना अनुभूति के सारा वाद-विवाद व्यर्थ है।
(2) दृष्टांत अलंकार का व्यापक प्रयोग।

 

(8)

साधो, देखो जब बौराना।
सॉची कहौ तौ मारन धावै झूठे जग पतियाना।
हिन्दू कहत है राम हमारा मुसलमान रहमाना।
आपसमे दोउ लड़े मरतु है मरम कोइ नहीं जाना।
बहुत मिले मोहिं नेमी-धर्मी प्रात करै असनाना।
आतम छोड़ि पषानै पूजै तिनका थोथा ज्ञाना।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे मनमे बहुत गुमाना।
पीतर - पाथर पूजन लागे तीरथ बर्न भुलाना।
माला पहिरे टोपी पहिरे छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दै गावत भूले आतम खबर न जाना।
घर घर मंत्र जो देन फिरत है मायाके अभिमाना।
गुरुवा सहित सिष्य सब बड़े अंतकाल पछिताना।
बहुतक देखे पीर- औलिया पढ़ें किताब-कुराना।
करै मुरीद कबर बतलावै उनहूँ खुदा न जाना।
हिन्दुकी दया मेहर तुरकनकी दोनो घरसे भागी।
वह करै जिबह वाँ झटका मारे आग दोऊ घर लागी।

शब्दार्थ - बौराना = पागल हो गया, पतियाना = विश्वास कर लेना, पखानहि = पत्थर, नेमी = नियम का पालन करने वाला, डिंभ = पाखंड, केतिक कितने।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में कबीर एक समाज सुधारक के रूप में समाज में प्रचलित अंधविश्वास, सांप्रदायिकता, पाखण्ड, धार्मिक कट्टरता पर प्रहार कर रहे हैं।

व्याख्या - कबीर संसार के ज्ञानियों को सम्बोधित करते हुए कह रहे हैं कि हे साधुओं! देखो यह जग बौरा गया है (अर्थात् संसार के लोग पागल हो गए हैं।) ये सच सुनकर तो मारने दौड़ते हैं (अर्थात् संसार में हो रहे कुकृत्यों का सत्य सहन करना इनकी सामर्थ्य से बाहर हो चुका है) और पाखण्डी लोगों की झूठी बातों और दिखावे पर इनको अत्यंत सरलता से विश्वास हो जाता है। (अर्थात् इनमें सही और गलत का भेद करने की क्षमता समाप्त हो चुकी है। ये ढोंगी और पाखण्डियों की बातों पर आसानी से विश्वास कर लेते हैं) कबीर कहते हैं कि उन्होंने ऐसे साधु और सन्यासियों का साक्षात्कार किया है जो कर्मकाण्ड के प्रति समर्पित हैं कबीर कहते हैं कि हिन्दू राम के प्रति अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं तथा मुसलमान करते हैं कि उन्हें अल्लाह ताला पर विश्वास है, दोनों ही अपने-अपने सम्प्रदायों के मत- मतान्तरों को श्रेष्ठ बताते हुए आपस में लड़ मरते हैं। वे धर्म के वास्तविक अर्थ को समझ नहीं पाते। कबीर हिन्दुओं का उल्लेख कर कहते हैं कि उन्होंने कई नेमी धर्मियों को देखा है जो व्रत-उपवास रखते हैं, सभी नियमों का पालन करते हैं परन्तु अपने अन्दर स्थित आत्मा के स्वर को नहीं सुनते और धर्म के नाम पर झूठा दिखावा करते रहते हैं। इस प्रकार उनकी साधना छलावा मात्र होती है जिसमें तनिक भी सत्यता नहीं होती। इसी प्रकार कबीर कहते हैं कि उन्होंने मुसलमानों के बहुत से पहुँचे हुए फकीर व पीर पैगम्बरों के भी दर्शन किए हैं जो बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों के अध्ययन का दावा करते हैं तथा अपने अनुयायियों को परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग बताते हैं, ऐसे लोग स्वयं सत्य से अनभिज्ञ होते हैं। इसी कारण वास्तविकता से परे बाहरी आडम्बरों में स्वयं भी उलझते हैं और दूसरों को भी उलझाए रखते हैं।

कबीर धार्मिक आडम्बरों में उलझे हिन्दुओं की मूर्ति पूजा पर भी प्रहार करते हैं। वे कहते हैं कि आसन लगाकर समाधि में बैठने वाले तथा पत्थर की मूर्तियों और वृक्षों की पूजा करने वाले लोग समझते हैं कि वे ईश्वर के सच्चे भक्त हैं। तीर्थाटन पर जाकर वे ईश्वर को पाने का प्रयास करते रहते हैं परन्तु ऐसा करके भी वो ईश्वर के सत्य स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाते। वे केवल इन बाह्य कर्मकाण्डों के सहारे अपने अहं को संतुष्ट करने का प्रयास करते रहते हैं। सत्यता तो यह है कि इन आडम्बरों को आत्मसात करना सांसारिक माया है। वास्तविकता में ईश्वर का साक्षात्कार करने का तरीका तो कुछ ही है।

कबीर थोथी धार्मिकता पर संकेत करते हुए कहते हैं कि माला (हिन्दू) और टोपी (मुसलमान) पहनकर तिलक आदि लगाकर अपने धर्म के प्रचार का प्रयास करने वाले कितने ही ऐसे अनुयायियों को वे देख चुके हैं कि जो साखी और सबद गाना भूलकर दिखावे के धर्म प्रचार में रत हैं वे अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप को भी नहीं जान पा रहे हैं। वे माया के अभिमान वश घर-घर जाकर अपने झूठे सिद्धांतों के प्रसार का प्रयास करते रहते हैं। ऐसे ढोंगी धर्मगुरु व उनके शिष्य अंत समय में पछताते हुए संसार सागर में डूब जाते हैं। (उनके हाथ कुछ नहीं लगता) कबीर कहते हैं कि उन्होंने कितने ही ऐसे पीरों व औलिया को देखा है जो कुरान आदि धर्मग्रन्थों को पढ़ते रहते हैं और उनमें लिखे सिद्धांतों को जनसामान्य तक पहुँचाने का कार्य करते हैं परन्तु सत्य तो यह है कि वे स्वयं खुदा के सच्चे स्वरूप से परिचित नहीं हो पाते हैं। (अर्थात् वे लोगों को धर्म के सत्य स्वरूप से अवगत कराने में स्वतः असमर्थ होते हैं) कबीर कहते हैं कि हिन्दू तथा मुसलमान अपने-अपने मतान्तरों में श्रेष्ठता को लेकर आपस में झगड़ते रहते हैं। हिन्दुओं के हृदय की दया तथा तुर्कों (मुसलमानों) की मेहर दोनों ही मानो कहीं दूर भाग गए हैं। (दोनों आपस में झगड़ते हुए एक दूसरे को आहत करते रहते हैं।) मुसलमान जिबह करता है तथा हिन्दू भी झटके के साथ बलि देकर जीव हत्या करता है। इस प्रकार दोनों के ही घर में आग लगी हुई है। (अर्थात् दोनों ही झूठे पाखण्डों के कारण पीड़ित हैं) कबीर कहते हैं कि इस तरह से दोनों ही कर्मकाण्डों के फेर में फंसकर अपने आप को तो चतुर समझते हैं और हमारा उपहास उड़ाते हैं। कबीर कहते हैं कि हे साधुओं अब आप ही बताएँ कि इनमें से अज्ञानी कौन है?

विशेष -
(1) आत्म-तत्वों के ज्ञान हेतु बाहरी आडंबर की आवश्यकता नहीं है, इस तत्व पर प्रकाश डाला गया है।
(2) हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही धर्मों में व्याप्त पाखण्डों की ओर संकेत किया गया है कि 'वो करे जिबह ..... घर लागी।
(3) हिन्दू और मुसलमान के मध्य बढ़ रहे साम्प्रदायिक विद्वेष को समाप्त करने का संदेश देने का प्रयास हुआ।
(4) भाषा - सधुक्कड़ी, अलंकार अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश।

 

(9)

अव तोहि जान न दैहूँ राम पियारे,
ज्यूँ भावै ल्यूँ होह हमारे॥
बहुत दिननके विछुरे हरि पाये,
भाग बड़े घर बैठे आये।
चरननि लागि करौं वरियाई,
प्रेम-प्रीति राखौ उरझाई।
इत मन-मंदिर रहौ नित चोपै,
कहै कबीर परहु मति घोषै॥

शब्दार्थ - तोहि = तुम्हें, ज्यू भाव = जिस प्रकार अच्छा लगे। बिछूरे = बिछड़े, घोष = धोखे में।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में जीवात्मा के परमात्मा से एकाकार होने के आनन्द से आह्लादित होकर पुनः विलग न होने का भाव प्रकट कर रही है।

व्याख्या - कबीर स्वयं (जीवात्मा) को पत्नी तथा राम (परमात्मा) को पति मानते हुए कह रहे हैं कि जीवात्मा को परमात्मा से एकाकार होने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है। अतः हे प्रियतम राम! अब यह विरहिणी तुम्हें अन्यत्र नहीं जाने देगी। हे प्रिय ! आपको जिस प्रकार भी श्रेष्ठ लगे आप इस जीवात्मारूपी नारी के साथ उसके बनकर रहिए। सुदीर्घ वियोग के पश्चात् इस विरहिणी आत्मा ने आपको पुनः प्राप्त किया है। यह इस जीवात्मा का परम सौभाग्य है कि आप इसे घर बैठे ही अत्यंत सरलता से प्राप्त हो गए हैं (साधना के द्वारा इस शरीर की क्रियाओ से ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव हो गया है) अर्थात् तुम्हें प्राप्त करने के लिए जीवात्मा रूपी विरहिणी को अन्यत्र नहीं जाना पड़ा और न ही कोई विशेष कार्य करना पड़ा। अब तो यह विरहिणी तुम्हें बलपूर्वक रोक कर तुम्हारे चरणों से लगकर सेवा करेगी और तुम्हें अपने प्रेम व स्नेह के जाल में उलझाए रखेगी। अतः यह जीवात्मा हर संभव प्रयास करेगी जिससे प्रभु उसे छोड़कर कहीं न जा सकें। जीवात्मा ईश्वर को संबोधित करते हुए कहती है कि हे प्रियतम राम ! (परमात्मा) अब आप इस मन रूपी मन्दिर में भली प्रकार निवास कीजिए तथा मुझे छोड़कर कहीं और जाने के धोखे में मत पड़िए।

विशेष -
(1) जीवात्मा और परमात्मा के मध्य स्त्री व पुरुष के सम्बन्धों की मधुर व्यंजना प्रस्तुत हुई है।
(2) भावात्मक रहस्यवाद की अभिव्यक्ति है।
(3) रूपक, उपमा, अनुप्रास, उदाहरण अलंकार हैं।

 

(10)

सब दुनी सयानी मै बौरा,
हम बिगरें बिगरौ जनि औरा।
मैं नहिं बौरा राम कियो बौरा,
सतगुरु जार गयौ भ्रम मोरा।
बिद्या न पढूँ वाद नहिं जाँनूं,
हरि गुन कथत सुनत बौराँनूं।
काम-क्रोध दोऊ भये बिकारा,
आपहि आप जरै संसारा॥
मीठो कहा जाहि जो भावै
दास कबीर राम गुन गावै॥

शब्दार्थ - दुनौ = दोनों, वाद= मत विकारा = विकार / बुराइयाँ, सयानी चतुर।

सन्दर्भ - पूर्ववत्।

प्रसंग - प्रस्तुत पद में कबीर सांसारिक विकारों से ग्रसित संसार की दशा का वर्णन कर रहे हैं।

व्याख्या - कबीर माया के भ्रम में फंसे सांसारिक विकारों से संतृप्त समाज की ओर संकेत करते हुए कह रहे हैं कि यह संसार स्वयं को चतुर मानता है और मुझे बावला कहता है। कबीर कहते हैं कि इस संसार में मुझ जैसे भक्तों को सभी बावला ही मानते हैं। इस संसार में सम्बन्ध का निर्वाह अत्यन्त कठिन है क्योंकि यदि हम किसी पर क्रोध दिखाएंगे या असहमति प्रकट करेंगे तो सामने वाला भी हमारे भाव के अनुरूप ही प्रतिक्रिया देगा। अर्थात् हम किसी पर बिगड़ेंगे तो वह भी हम पर क्रोध ही करेगा। अतः लोगों की इस प्रकार की टिप्पणियों का उत्तर देना भी मैंने उचित नहीं समझा (बावला कहे जाने पर) परन्तु मैं स्वयं बावला नहीं हुआ बल्कि मुझे तो स्वयं राम ने अपने विरह व प्रेम में बावला कर दिया है और यह विरह की अनुभूति तो मुझे तब हुई जब सतगुरु की कृपा से मेरे विवेक पर पड़ा भ्रम का आवरण जल गया। (अर्थात् गुरु की कृपा से ही मेरे मन का अज्ञान समाप्त हुआ तथा मैं सत्य की अनुभूति कर पाया) मैं किसी भी विद्या को पढ़ने में रुचि नहीं लेता तथा किसी भी मत या सम्प्रदाय से जुड़ने का प्रयास नहीं करता हूँ। बस ईश्वर के नाम का स्मरण करता रहता हूँ तथा उनके ही गुणों को कहते सुनते हुए बावला हो जाता हूँ। काम और क्रोध ये दोनों विकार ही संसार को अपनी तीव्र अग्नि में निरंतर जलाते रहते हैं और यह संसार उसमें जलता रहता है। मैंने अत्यंत मधुरता के साथ अपने मन के भाव प्रकट कर दिए हैं। अब इनमें से लोगों को जो बात अच्छी लगे वो ग्रहण कर सकते हैं। इस प्रकार यह परमात्मा का दास 'कबीर' सदा उनका ही गुणगान करता रहता है।

 

विशेष -

(1) नाम स्मरण पर बल दिया गया है।
(2) काम और क्रोध को समस्त ज्वालाओं का मूल स्वीकार किया गया है।
(3) पुनरुक्ति प्रकाश, अनुप्रास आदि अलंकार है।
(4) गुरू की महिमा का भी उल्लेख हुआ है।
(5) कबीर ने स्वयं को मत-मतान्तरों से विलग स्वीकार किया हैं।

साखी

(1)

मृत बरिसै हीरा निपजै, घंटा पड़े टकसाल।
कबीर जुलाहा भया पारषू, अनमै उतरया पार॥1॥
कबीर हरि रस यौं पिया, बाकी रही न थाकि॥
पाका कलस कुंभार का, बहुरि न चढ़हि चाकि॥2॥

शब्दार्थ - घंटा पड़े टकसाल = अनहद नाद की ध्वनि सुनाई देती है। हरि रस = भक्ति का आनंद। यौं = इस प्रकार थाकि = थकान (सांसारिक कष्टों से उत्पन्न)। पाका = पका हुआ। कलस = कलश, घड़ा। कुंभार = कुम्हार। चाकि = चाक।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सम्पादित 'कबीर' संग्रह से संकलित है। ये साखी 'परचा कौ अंग एवं रस कौ अंग' में संकलित है।

प्रसंग - प्रस्तुत साखियों में ब्रह्मलीन होने पर दिव्य अनुभूति और ईश साक्षात्कार एवं भक्ति रस पान द्वारा प्राप्त आनन्द का वर्णन करते हैं।

व्याख्या - ब्रह्मानंद रूपी अमृत की वर्षा हो रही है और प्रभु दर्शन रूपी हीरा की सम्प्राप्ति हो रही है। अनहद शब्द सुनाई दे रहा है। कबीर जुलाहा निर्भय होकर इस संसार सागर के पार उतर गया। कबीर आगे कहते हैं कि, मैंने भी भक्ति का रस इस प्रकार पिया है कि सांसारिक कष्टों के द्वारा उत्पन्न होने वाली थकान बिल्कुल मिट गई है। अथवा यों कहिए कि भक्ति रस पान के फलस्वरूप विषय-वासना जन्य मेरी क्लान्ति मिट गई। जिस प्रकार कुम्हार का पकाया हुआ घड़ा दुबारा चाक पर नहीं चढ़ाया जाता है, उसी प्रकार ब्रह्मानन्द का पान करने वाली आत्मा परिपक्वावस्था को प्राप्त हो जाती है और फिर उसको जन्म-मरण के चक्कर में नहीं भटकना पड़ता है।

विशेष -

(1) अलंकार
    (i) पहली पंक्ति में रूपक अलंकार है।
    (ii) द्वितीय पंक्ति में सांगरूपक है।
    (iii) द्वितीय पंक्ति - पाका चाकि में कुम्हार का दृष्टान्त होकर समझाने का प्रयास किया गया है।
(2) भक्त का शरीर हरिरूप कुम्भकार का पका हुआ घड़ा बताया गया है।
(3) भक्त का शरीर भगवान की इच्छापूर्ति का साधन है इसमें व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग हुआ है।
(4) इस साखी में सच्चे भक्त की समर्पण भावना व्यंजित (अभिव्यक्त) है।
(5) प्रतीकों का प्रयोग दृष्टव्य है।
(6) भाषा सधुक्कड़ी।

 

(2)

अगनि जु लागी नीर मैं, कंदू जलिया झारि।
उत्तर दक्षिण के पण्डिता, रहे बिचारि बिचारि॥1॥
गुर दाधा चेला जल्या, बिरहा लागी आगि।
तिणका बपुड़ा, ऊबऱ्या, गलि पूरे कै लागि॥2॥
अहेड़ी दौं लाइया, मृग पुकारै रोइ।
जा बन में क्रीला करी, दाझत है बन सोइ॥3॥
पाणी माँहें प्रजली, भई अप्रबल आगि।
बहती सलिता रह गई, मंछ रहे जल त्यागि॥4॥
समंदर लागि आगि, नदियाँ जलि कोइला भई।
देखि कबीरा जागि, मंछी रूषां चढ़ि गईं॥5॥

शब्दार्थ - अगनि = आग। नीर = जल। कंदू = कीचड़। झारि = पूरी तरह। विचारि = विचार करते हैं। दाधा = दग्ध हुआ, जल गया। चेला = शिष्य। जल्या = जलगया। तिणका = तिनका, सूक्ष्म तत्त्व। बपुड़ा = बेचारा। गति = गले। पूरे = पूर्ण पुरुष, परमात्मा। अहेड़ी = शिकारी, गुरु। दौं = दऊ आग, विरहाग्नि। मृग = पशु- पक्षी, वासनाएँ, अहंकारी। बन = संसार, वासनामय मन। क्रीला = क्रीड़ा, भाँति-भाँति के भोग। दाझत है = जलता है। पाणी = पानी, शुद्ध चेतना। प्रजली = ज्ञान का अग्नि जला। अप्रबल = प्रबल रूप धारण कर लिया। सलिता = सरिता, नदी, चेतना। मंछ = मछलियाँ। समंदर = समुद्र, अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य। आगि = आग, विरहाग्नि नदियाँ = इन्द्रियाँ इड़ा और पिंगला कोइला = कोयला मंछी = मछली, साधक जीव, कुण्डलिनी। रूषां = वृक्षा, सहस्रार कमल।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'बयान विरह कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत साखियों में कबीरदास जी ने ज्ञानाग्नि की महिमा, ज्ञान की दशा, ज्ञान के उपदेश का निरूपण किया है।

व्याख्या - कबीर कहते हैं कि पानी में आग लग गई है। उसकी ज्वाला से कीचड़ पूर्णतया जल गया है। इस रहस्य पर उत्तर-दक्षिण के पंडित विचार करते हैं परन्तु थाह किसी को नहीं मिल रही है। कबीर आगे कहते हैं कि ईश्वरीय विरह की इस अग्नि में गुरु और चेला दोनों जल गए अर्थात् उनके गुरु-भाव और शिष्य भाव समाप्त हो गए। न गुरु-गुरु रह गया और न चेला चेला रह गया। वे सूक्ष्म आत्म तत्त्व रह गए। यह आत्म तत्त्व ब्रह्म के साथ तदाकार था और इस प्रकार नष्ट होने से बच गया, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार छोटा-सा तिनका पानी में नहीं डूबता है। कंबीरदास कहते हैं कि शिकारी ने वन में आग लगा दी। उसमें रहने वाले जीव-जन्तु चिल्लाने लगे कि हमने जिस वन में खेल किए हैं, हाय ! वही वन अब जला जा रहा है।

इसका प्रतीकार्थ है कि गुरु ने वासना रूपी वन में ज्ञान - विरह की आग लगा दी। इसमें भोक्ता इन्द्रियाँ रो-रोकर पुकार रही हैं कि हमने जिस संसार में इतने भोग-विलास किए थे, वह अब समाप्त हुआ जा रहा है।

संयुक्त अर्थ - गुरु रूपी शिकारी ने वासनामय मानस रूपी बन में ज्ञान और विरह रूपी अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है। अतः वासना रूपी मृग रो-रो कर पुकार करने लगे हैं। वे कहते हैं कि जिस काम मानय रूपी बन में हमने क्रीड़ा की है, वहीं बन जल रहा है।

यह विरहाग्नि चेतना रूपी जल में लगी और उसने अत्यन्त प्रबल रूप धारण कर लिया। अज्ञान व आसक्ति रूपी गंदगी और मैल जल गए और नदी का बहता हुआ जल रूपी चेतना रह गई और उसमें निवास करने वाली वासना रूपी मछलियाँ इस विरहाग्नि की गरमी के कारण इस सरिता को छोड़कर चली गई हैं।

कबीर कहते हैं कि समुद्र में आग लग गई है और इस आग में सब नदियाँ जलकर कोयला हो गई हैं। कबीर कहते हैं कि तुम उठकर तो देखो मछलियाँ भी दौड़कर वृक्ष पर चढ़ गई हैं।

ज्ञानपरक अर्थ - कबीर कहते हैं कि अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य में ज्ञानाग्नि प्रकट होने पर इन्द्रियों की आसक्ति सर्वथा निःशेष हो गई है और साधक जीव जागातिक बोध से ऊपर उठकर ब्रह्म में लीन हो गया है। अन्य व्यक्तियों को चाहिए कि वे कबीर की साधना का यह चमत्कार देखें।

योगपरक अर्थ - मूलाधार चक्रस्थ कुण्ड में चण्डाग्नि प्रज्ज्वलित हो गई अथवा कुण्डलिनी जाग्रत हो गई है और उसके कारण इड़ा और पिंगला रूपी नदियाँ जलकर नष्ट हो गई हैं। कुण्डलिनी सहस्रार कमल पर पहुँच गई हैं।

विशेष-
(1) यह उलटबांसी है। परस्पर विरोधी तथ्यों का निरूपण है।

(2) शैली प्रतीकात्मक है। 'नीर' आत्मा का प्रतीक है जो स्वरूप से जल के समान निर्मल एवं शीतल है। विषय-वासना विशेष रूप से माया ही कीचड़ है। स्वरूपतः आत्मा अग्नि के विरुद्ध धर्म वाली है। विषय-वासना से लिप्त इस जीवात्मा में ज्ञान और विरह की अग्नि प्रज्ज्वलित होने पर माया जनित कीचड़ जल जाती है।

(3) एक ही आश्रय आत्मा में पारस्परिक विरोधी धर्मों की प्रतीति होती है। इसी रहस्य के विचार में संसार के समस्त सुधीजन मग्न बने रहते हैं।

(4) आत्मतत्त्व की दृष्टि से अथवा पारमाणविक स्थिति में गुरु चेले का भेद रह ही नहीं जाता है। 'तिणका' में जीव का अणुत्व एवं न डूबने की क्षमता व्यंजित है।

(5) कतिपय आलोचकों के अनुसार दावा और जल्या में सघनता की सापेक्षता है। दाधा सामान्य जलना है और जल्या में इसी क्रिया की सघनता है। गुरु तत्वज्ञ है अतः उसमें सामान्य जलन रहती है। परन्तु चेले में गहरे अहंकार को नष्ट करने के लिए सघन रूप से जलना अपेक्षित है।

(6) पानी और आग के परस्पर विरोधी अर्थों को एक ही आश्रय सरिता में स्थापित करके उलटबाँसी का चमत्कार उत्पन्न किया गया है।

(7) यहाँ पर (stream of consciousness) के समान कल्पना है। चेतना अखण्ड एवं सतत प्रवाहमान है। यह बन्धन की आसक्ति से रहित है, परन्तु है सोपाधिक चैतन्य प्रवाह रूप ही।

(8) संकट के समय मछली रूपी साथी व्यक्ति को छोड़ जाते हैं। यह अर्थ करने पर अन्योक्ति अलंकार मानना होगा।

(9) ज्ञानाग्नि प्रज्ज्वलित होने पर इन्द्रियातीत शुद्ध ज्ञान रह जाता है। अतः नदियों के जल जाने से कल्पना सर्वथा सार्थक है। यह नष्ट हो जाता है, केवल राम एवं उसका प्रेम नष्ट नहीं होते हैं। तात्पर्य यह है कि केवल राम का प्रेम ही एकमात्र सत्य है।

(10) अलंकार - रूपकातिशयोक्ति, रूपक, सांगरूपक, असंगति विरोधाभास, अन्योक्ति, अनुप्रास आदि।

 

(3)

भारी कहौं त बहु डरौं, हलका कहूँ तौ झूठ।
मैं का जाँणों राम कूं, नैनूं कबहुँ न दीठ॥1॥
ऐसा अद्भुत जिनि कथै, अद्भुत राखि लुकाइ।
वेद कुरानौं गमि नहीं, कह्याँ न को पतियाइ॥2॥
करता की गति अगम है, तूं चलि अपर्णै उनमान।
धीरे धीरें पाव दे, पहुँचेंगे परवान॥3॥

शब्दार्थ - त = तो। डरौं = भय। का = क्या। जांणौं = जानना। नैनूं = आँखों से। दीठ = देखा। करता = परमात्मा। गति = क्रियाकलाप। उनमान = मार्ग। परवान = गन्तव्य अर्थात् ब्रह्म प्राप्ति। जिनि = मन। कथै = कहे। पतियाइ = विश्वास करना। गमि= पहुँच। राखि लुकाइ = रहस्य रहने दे। बेद = वेद।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'जर्णा कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत साखियों में कबीरदास जी ने बताया है कि ब्रह्म अनिर्वचनीय है। परमात्मा का स्मरण ही कष्टों एवं संसार के आवागमन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। अतएव परमात्मा के दर्शन के लिए सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिए।

व्याख्या - यदि परमात्मा को भारी कहता हूँ तो बड़ी भारी भूल हो जाने का भय लगता है, क्योंकि वह निराकार होकर भारी क्योंकर हो सकता है? और यदि मैं उसको हल्का कहता हूँ तो ऐसा कहना असत्य होगा, क्योंकि निराकार की माप-तौल करना असम्भव है। मैंने राम को अपनी आँखों से कभी नहीं देखा है। तब मैं कैसे कह सकता हूँ कि मैं राम के विषय में कुछ जानता हूँ। कबीर कहते हैं कि परमात्मा का स्वरूप अत्यन्त अद्भुत है। हे मन ! तू उसका वर्णन करने का प्रयत्न मत कर। उसको तू अद्भुत समझकर रहस्य ही बना रहने दे। उस तक वेद- कुरान आदि की भी पहुँच नहीं है, अर्थात् वेद और कुरान जैसे महान ग्रन्थ भी उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं। यदि ऐसे ब्रह्म का निरूपण किया भी जाएगा तो उस पर कोई विश्वास नहीं करेगा। अतः हे जीव ! सम्पूर्ण जगत को बनाने वाले परमात्मा के क्रिया-कलाप को कोई नहीं जान सकता है। तू अपनी साधना करता रह, तू अपनी सामर्थ्य के अनुसार उसको प्राप्त करने का प्रयत्न करता रह। अपने मार्ग से निरन्तर प्रयत्न करते रहने पर किसी न किसी दिन अपने गन्तव्य- ब्रह्म दर्शन की प्राप्ति हो ही जाएगी।

विशेष -

(1) ब्रह्म के स्वरूप का वास्तविक निरूपण करना संभव नहीं है।
(2) सतत् प्रयत्नों द्वारा ब्रह्म प्राप्ति की संभाव्यता साधक के लिए बहुत बड़ा आश्वासन है।
(3) अलंकार गूढोक्ति, भेदकातिशयोक्ति, वक्रोक्ति, सम्बन्धातिशयोक्ति आदि।
(4) भाषा सधुक्कड़ी।

 

(4)

कर पकरै अँगुरी गिनें, मन धावै चहुँ ओर।
जाहि फिराँयाँ हरि मिलै, सो भया काठ की ठौर॥1॥
केसौं कहा बिगाड़िया, जे मुँडै सौ बार।
मन कौं काहे न मूड़िए जामैं बिषै विकार॥2॥
बैसनौं भया तौ का भया, बूझा नहीं बबेक।
छापा तिलक बनाइ करि, दगध्या लोक अनेक॥3॥

 

शब्दार्थ - कर = हाथ। पकरै = पकड़े रहता है। अँगुरी = अंगुली। धावै = दौड़ता है। चहुँ = चारों। जाहि फिराँयाँ = जिसको ईश्वर की ओर मोड़ने से। केसौं = बालों। कहा = क्या। बिगाड़िया = बिगाड़ा है। मूड़िए = मुँड़वाना। जामैं = जिसमें। बिषै विकार = दोष। बैसनौं = वैष्णव मत, भगवद् भक्त। भया = हुआ, होने से। का भया = क्या लाभ। बूझा = समझा। बबेक = विवेक। दगध्या = दुःख।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'भेष प्रसंग कौ अंग' से संकलित है।

प्रस्तुत - साखियों में कबीरदास जी ने बाह्याडम्बरों की व्यर्थता पर प्रकाश डालते हुए, सीधा सच्चा व्यवहार करने का सन्देश दिया है।

व्याख्या - हाथ माला पकड़े रहता है और अंगुली उसके मनके (दाने) गिनती रहती है और मन चारों ओर दौड़ता रहता है तरह-तरह की वासनाओं में भटकता रहता है। जिस मन को संसार की ओर से मोड़ने से ईश्वर की प्राप्ति होती है, वही मन काठ के समान जड़ हो गया है क्योंकि भगवान के प्रति प्रेमी की सरसता के अभाव में वह काठ के समान हो गया है।

कबीर आगे कहते हैं कि, बालों ने क्या बिगाड़ा है, जो तू इनको सैकड़ों बार मुड़वाता रहता है। तू अपने मन को क्यों नहीं मुड़वाता जिसमें अनेक दोष भरे हुए हैं।

 

यदि तुझको विवेक की प्राप्ति नहीं हो सकी - तू सत्यासत्य का अन्तर नहीं समझ सका तो तेरे वैष्णव मत में दीक्षित होने से कोई लाभ नहीं है। तेरे जैसे अनेक लोग छाया तिलक आदि बाह्याचार करते हुए इस संसार में दुःख भोगते रहते हैं।

विशेष -
(1) सच्ची भक्ति से ही भगवान का साक्षात्कार सम्भव है। केवल बाह्याचार तो व्यक्ति को जड़वत् बना देते हैं।
(2) काम, क्रोध, लोभ, मद एवं मोह विकार हैं। इनके कारण मन दूषित होता है। सिर मुंड़वाने के स्थान पर यदि मन की सफाई की जाए, तो व्यक्ति विकार रहित हो जाएगा।
(3) प्रभु की भक्ति विवेक द्वारा प्राप्त होती है, किसी मत-सम्प्रदाय में दीक्षित होने मात्र से नहीं।
(4) अलंकार - अनुप्रास, गूढोक्ति।
(5) भाषा - सधुक्कड़ी।

 

(5)

कबीर भाठी कलाल की, बहुतक बैठे आइ।
सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तौ पिया न जाइ॥1॥
हरि रस पीया जाँणिये, जे कबहुँ न जाइ खुमार।
मैमंता घूमत रहै, नाँही तन की सार॥2॥
सबै रसांइण मैं किया, हरि सा और न कोइ।
तिल इक घट मैं संचरै, तौ सब तन कंचन होइ॥3॥

शब्दार्थ - भाठी = भट्टी जिसमें मदिरा तैयार की जाती है। कलाल = मदिरा बेचने वाला। बहुतक = बहुत से व्यक्ति। सिर सौंपे = अहंकार त्यागें। सोई = वही। पिवै = ब्रह्मानंद की प्राप्ति। हरि रस = भक्ति का आनन्द। खुमार = नशा (भक्ति का)। मैमंता = नशे में मस्त अर्थात् ब्रह्मानंद में लीन। सार= सुधबुध। सबै = सभी। रसांइण = रस, विभिन्न साधन। सा = के समान। घट = हृदय। संचरै = संचरण करे। कंचन = शुद्ध स्वर्ण, निर्मल।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'रस कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - कबीरदास द्वारा रचित 'रस कौ अंग' से उद्धृत साखी में कबीदास जी कहते हैं कि ब्रह्मानंद की मधुरता के लिए सर्वस्व त्याग अपेक्षित है।

व्याख्या - कबीर कहते हैं कि मदिरा बेचने वाले की भट्ठी के पास बहुत से व्यक्ति शराब पाने की इच्छा से आकर बैठ गए हैं अर्थात् ब्रह्मानंद की प्राप्ति के लिए बहुत से व्यक्तियों ने प्रयास किए हैं। परन्तु मदिरा को वही पी सकता है जो अपना सिर दे सकता हो, अन्यथा मदिरा को पिया नहीं जा सकता है। इसका अभिप्राय यह है कि अहंकार या सर्वस्व को त्यागने के बाद ही ब्रह्म प्राप्ति संभव है अथवा ईश्वर प्राप्ति के सभी प्रयास निरर्थक सिद्ध होंगे।

प्रभु भक्ति के आनंद को प्राप्ति करने वाले की पहचान यह है कि वह हमेशा उसी के नशे (ब्रह्मानंद में लीन) में रहता है। उस नशे में वह मस्त बना हुआ घूमता है तथा उसको अपने शरीर (सांसारिक या विषयी सुख) का होश नहीं रहता है।

कबीरदास जी कहते हैं कि मैंने सभी साधनों को अपनाकर देख लिया और देख लिया कि ब्रह्म सुख के समान अन्य कोई सुख नहीं है। यदि ब्रह्म-सुख रूपी रसायन जरा भी हृदय में प्रवेश कर जाता है भगवान का प्रेम यदि पल भर के लिए भी जाग्रत हो जाता है तो यह सम्पूर्ण शरीर को (व्यक्तित्व को) सुवर्ण के समान खरा (निर्मल) बना देता है।

विशेष-
(1) यह प्रतीकात्मक शैली है तथा इसमें रूपकातिशयोक्ति की व्यंजना है। कलाल का तात्पर्य सद्गुरु से है। ईश्वर प्रेम की मदिरा है। पीने वाला साधक है, सीस देना सर्वस्व समर्पण अर्थात् अहभाव का अंत है।
(2) सर्वस्व त्याग के द्वारा ही सद्गुरु के उपदेश का सुधापान तथा ब्रह्मानंद की प्राप्ति संभव है।
(3) जिस प्रकार नशे में व्यक्ति को शरीर की सुधबुध नहीं रहती ऐसी ही स्थिति ईश्वर के प्रति भक्ति में लीन व्यक्ति की होती है।
(4) मन-मन की पवित्रता के लिए कंचन की समता अन्य कवियों ने भी दी है - कंचन कहत खरो-सूरदास।
(5) रंच मात्र भगवद् प्रेम कल्याण का हेतु बनता -

जाकी कृपा लवलेश तें मतिमंद तुलसीदास हूँ।
पायौ परम विश्राम राम समान प्रभु नाहीं कहूँ।

(6) कुछ टीकाकारों ने इस साखी का अर्थ इस प्रकार भी किया है मैंने रसेश्वर सम्प्रदाय वालों के अनुसार अनेक रसों का निर्माण किया, किन्तु अंत में यह देखा कि हरि भक्ति रस से बढ़कर कोई रस नहीं, अन्य रस तो स्पर्श होने पर लोहे के स्वर्ण में बदलते हैं, परन्तु इसका तो रंचमात्र संचार होते ही सारा शरीर स्वर्ण में परिणत हो जाता है। इस अर्थ के आधार पर छंद में व्यतिरेक अलंकार की व्यंजना दृष्टव्य है।
(7) अलंकार - सांगरूपक, उपमा, अतिशयोक्ति।
(8) भाषा - सधुक्कड़ी।

 

(6)

पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि,
आगे तैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥1॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहूणों, बहुरि न आँवौं हट्ट॥2॥
कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आर्टें लूंण।
जाति पाँति कुल सब मिटे, नाँव धरौगे कौंण॥3॥
सतगुर हमसूँ रीझकर, कह्या एक परसंग।
बरस्या बादर प्रेम का, भीज गया सब अंग॥4॥

शब्दार्थ - लोक = लोग। वेद = प्राचीन ग्रन्थ। घट्ट = कभी समाप्त न होने वाली। बिसाहूणाँ = प्रक्रिया, कर्म। हट्ट = हाट बाजार। मिल्या = प्राप्त हुआ, साक्षात्कार हुआ। गरवा = गुरुत्व भाव से सम्पन्न, गौरवमय बड़ा। रलि गया = मिल गया, एकमेक हो गया, घुल-मिलकर एकरूप हो गया। आटैं लूंण = आटे में नमक की तरह से। कौंण = कौन अथवा कौन सा। रीझकर = प्रसन्न होकर। परसंग = प्रसंग, विषय। बरस्या = बरसा।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'गुरुदेव कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - कबीर भारतीय साहित्य परंपरा के एकमात्र रचनाकार हैं जिन्होंने गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया है। इस दृष्टि से वे हर अन्य कवि तथा काव्य परंपरा पर भारी पड़ते हैं।

व्याख्या - कबीर शास्त्र-ज्ञान और गुरु-प्रदत्त ज्ञान का अंतर स्पष्ट करते हैं। वे कहते हैं कि पहले मैं लोगों द्वारा सुनी हुई बातों और शास्त्रों द्वारा बताए गए मार्ग को ही परम सत्य मानकर उनका अनुसरण कर रहा था। वस्तुतः यह अंधकार का मार्ग था जिस पर चलकर कोई उपलब्धि नहीं हो सकती थी। फिर मेरी भेंट सतगुरु से हुई जिन्होंने मुझे इस मार्ग की निरर्थकता समझाई। उन्होंने मुझ पर कोई मार्ग थोपा नहीं बल्कि मेरे हाथ में दीपक देकर स्वयं अपना सत्य खोजने की प्रेरणा दी।

कबीर कहते हैं कि गुरु ने दीपक को तेल से भर दिया और उसमें ऐसी वर्तिका दी जो कभी समाप्त नहीं होती। इस प्रक्रिया को पूरा करने के बाद हमें दुबारा बाजार आने की जरूरत नहीं पड़ी।

कबीर कहते हैं कि प्रभु-कृपा से मुझे मूल्यवान सद्गुरु मिल गया और मिलते ही वह मेरी चेतना में, आटे नमक की तरह एकाकार हो गया। तब फिर उसे अलग करके कैसे देखा जा सकता है? गुरु एकमय होते ही व्यक्ति की वाचक- सीमाएँ जैसे जात-पात या वंश- कुल सब समाप्त हो जाती है। तब उसको किस नाम से पुकारा जाए?

कबीर उस क्षण की अनुभूति व्यक्त कर रहे हैं जब गुरु ने उन्हें परम ज्ञान की उपलब्धि कराई। वे बताते हैं कि सतगुरु ने मेरे भक्तिभाव और जिज्ञासा आदि से प्रसन्न होकर मुझे परम ज्ञान दिया। परम ज्ञान की प्राप्ति इतनी आह्लादकारी थी कि यूँ लगा जैसे प्रेम का बादल फट रहा हो और अंग-अंग प्रेम की वर्षा में भीगकर सराबोर हो गया हो।

विशेष -
(1) इस साखी में सतगुरु का अप्रतिम महत्त्व बताया गया है।
(2) कबीर पर नाथों का गहरा प्रभाव है क्योंकि उनकी परवरिश नाथ परंपरा के माहौल में हुई है। गुरु-भक्ति का यह भाव संभवत: नाथों की प्रेरणा से भी उन्हें मिला है।

(3) कबीर साहित्य के संदर्भ में ये पंक्तियाँ इसलिए प्रासंगिक हैं कि ये कबीर के सबसे प्रिय भाव को अभिव्यक्त करती हैं। कबीर के सम्पूर्ण साहित्य में सबसे ज्यादा गहराई और प्रतिबद्धता उनके गुरुभक्ति सम्बन्धी पदों में दिखती है जिनका साक्ष्य इन कविताओं में नजर आता है।

(4) उपर्युक्त पंक्तियों में कबीर ने प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है। तेल संवेदना को प्रतीकित कर रहा है। सच्चा गुरु शिष्य को सर्वप्रथम अनुभूति एवं संवेदना से भर देता है। गहन मानवीय संवेदना के बिना ज्ञान संभव नहीं है। इसके बाद गुरु शिष्य को ज्ञानरूपी वर्तिका देता है। वह उसकी अनुभूतिशीलता को ज्ञान से जोड़ देता है। यह ज्ञान कभी समाप्त नहीं होता। कबीर कहते हैं कि इस प्रकार, उनकी ज्ञान की प्रक्रिया पूरी हुई और फिर संसार में आने की जरूरत नहीं पड़ेगी।

(5) हट्ट (बाजार) तृष्णा भाव को व्यंजित कर रहा है। जब तक तृष्णा रहेगी तब तक संसार में आना पड़ेगा। गुरु इसे समाप्त कर देता है।
(6) गुरु के प्रति अनन्य कृतज्ञता - भाव की अभिव्यक्ति और उसके अप्रतिम महत्त्व का बखान संतकाव्यधारा की महत्त्वपूर्ण विशेषता है, जिसकी सुंदर और मार्मिक अभिव्यक्ति उपर्युक्त पंक्तियों में हुई है।
(7) अलंकार - अनुप्रास।
(8) भाषा -सधुक्कड़ी।

 

(7)

बहुत दिनन की जोवती, बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसै तुझ मिलन कूँ, मनि नाहीं विश्राम॥1॥
बिरहिन ऊठै भी पड़े, दरसन कारनि राम।
मूवा पीछें देहुगे, सो दरसन किहिं काम॥2॥
मूवाँ पीछे जिनि मिलै, कहै कबीरा राम।
पाथर घाटा लोह सब, (तब) पारस कौंणे काम ॥3 ॥
बासुरि सुख नाँ रैणि सुख, ना सुख सुपिनै माँहि।
कबीर बिछुट्या राम सूँ, नाँ सुख धूप न छाँहि॥4॥

शब्दार्थ - जोवती = प्रतीक्षारत। बहुत दिनन की = बहुत दिनों से। बाट = मार्ग। जिव = प्राण, चेतना। मिलन कूँ = मिलने के लिए। मनि = मन में। बिरहिन ऊठै भी पड़े = विरहाधिक्य के कारण विहरिणी उठती है, पर असमर्थ होने के कारण गिर पड़ती है। दरसन कारनि = दर्शन पाने के लिए। मूवाँ पीछें = मरने के बाद, शरीरांत होने पर। किहिं काम = किस काम का। मूवाँ पीछें जिनि मिले = मरण (देहावसान) के बाद न मिलना। पाथर घाटा = पत्थर रूप में घटित अथवा घटकर, बदल कर पाषाण होने। कौंण काम = किस काम का। बासुरि= दिन में। सुपिनै माँहि = स्वप्न में भी। बिछुटया = बिछुड़े। धूप-न-छाँह = धूप न छाया में।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'विरह कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत साखियों में कबीरदास जी ने परमात्मा से बिछुड़ी आत्मा रूपी वियोगिनी की विरह दशा का चित्रण किया है।

व्याख्या - कबीर अपनी व्याकुलता का वर्णन कर रहे हैं। प्रभु से साक्षात्कार के लिए उनकी आत्मा बेचैन है। प्रभु राम की प्रतीक्षा बहुत दिनों से मार्ग में हो रही है। यह प्राण चेतना उसने मिलने के लिए व्याकुल है और मन में संतोष सुख नहीं रह गया है। अर्थात् प्रिय राम की विरहिणी चेतना कहती है कि वह राम से मिलने की प्रतीक्षा में बहुत दिनों से मार्ग में आस लगाए बैठी हुई है। उसकी चेतना उनके दर्शनों के लिए तरस रही है।

प्रस्तुत साखी में कबीर ने जीवन-दर्शन सम्बन्धी विचार प्रमुखता से रखा है। कबीर मुक्ति के स्थान पर जीवन-मुक्ति के विचार को महत्त्व देते हैं। कबीर विरह-विदग्ध विरहिणी की स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं कि विरहिणी उठती है और असहाय होकर फिर गिर पड़ती है। प्रभु राम के दर्शन के लिए वह अत्यन्त व्याकुल है। शरीरोपांत यदि दर्शन हो भी जाये तो भला वह किस काम का। अतः प्रभु से मिलन तो इसी जीवन में आवश्यक है। जीवन की सार्थकता तो जीवित रहते ही प्रभु प्राप्ति में है।

कहने का तात्पर्य यह है कि कबीर के दर्शन के अनुसार जीवनकाल में ही प्रभु की भक्ति द्वारा मुक्ति प्राप्त करना उत्तम है।

कबीर कहते हैं कि मरण के बाद राम मिल भी जाएँ तो क्या लाभ है? पारस की उपयोगिता भी समाप्त हो जाती है यदि लोहा पत्थर रूप में परिवर्तित हो जाए।

तात्पर्य यह है कि लोहा यदि पत्थर रूप ले यानि परिवर्तन की सारी संभावनाएँ ही समाप्त हो जायें, तब पत्थर के लिए पारस की क्या उपयोगिता रह जाएगी। अतः जीवन में ही राम का दर्शन जीवन को सफल बना सकता है। मृत्युपरांत प्रभु दर्शन की क्या सार्थकता रह जाएगी।

कबीर कहते हैं कि प्रभु राम से वियोग की दशा में न तो दिन में सुख है न ही रात्रि में और न ही स्वप्न में सुख प्राप्त हो सकता है। इस वियोग की अवस्था में धूप में या छाया में अर्थात् गर्मी में या सर्दी में कभी भी सुख की अनुभूति प्राप्त नहीं होती है। तात्पर्य यह है कि जीवन का सच्चा सुख प्रभु राम से मिलन में ही है। प्रभु कृपा से वंचित होकर जीवन के लौकिक सुखों में सुखानुभूति प्राप्त नहीं हो सकती। राम वियोग की दशा में हमेशा विरह भाव की वेदना में ही जीना पड़ता है।

विशेष -
(1) इस साखी में विरहानुभूति की तीव्रता की सुंदर एवं प्रभावशाली व्यंजना हुई है।
(2) भक्त कवि के लिए जीवन की सार्थकता ब्रह्मा से मिलन में निहित है जो इन पंक्तियों में व्यंजित हुआ है।
(3) साखी में विभिन्न बोलियों के शब्दों का प्रयोग हुआ है जो कबीर के काव्य में उपस्थित भाषायी समन्वय का प्रमाण है।
(4) इन पंक्तियों में यह संकेतित है कि भक्ति का मार्ग बहुत आसान नहीं है।
(5) इन पंक्तियों में कबीर ने विरहानुभूति को इतनी गहराई एवं मार्मिकता से अंकित किया है कि सामान्य विरह-वर्णन से कबीर के विरह-वर्णन की विलक्षणता अपनी मौलिकता में साकार दिखाई     देने लगती है।
(6) इन पंक्तियों में विरह तीव्रता को ऊहात्मक रूप में अभिव्यक्ति मिली है जो सूफी काव्य-परंपरा से प्रेरित प्रतीत होता है।

 

(8)

परबति परबति मैं फिर्या, नैन गँवायें रोइ।
सो बूटी पाँऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ॥1॥
नैन हमारे जलि गए, छिन छिन लोड़ें तुझ्झ।
ना तूं मिलै नां मैं सुखी ऐसी बेदन मुझ्झ॥2॥
सुखिया सब संसार है, खायै अरु सौवै।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै॥3॥

शब्दार्थ - परबति = पर्वत। फिर्या = घूमा। बूटी = औषधि। जीवनि = जीवन। लोड़ै = प्रतीक्षा में देखना। सुखी = प्रसन्न। बेदन = वेदना। सुखिया = सुखी। अरु = और।

 

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'विरह कौ अंग' से संकलित हैं।

 

प्रसंग - इन साखियों में कबीरदास जी ने विरहिणी आत्मा द्वारा अपने प्रिय परमात्मा की खोज में व्याकुल घूमते दर्शाया है।

 

व्याख्या - मैंने पर्वत पर्वत छान डाला और नेत्र प्रिय वियोग में रोते राते नष्ट कर बैठा, किन्तु मैं कहीं भी वह संजीवनी बूटी अर्थात् ब्रह्म या स्वामी नहीं प्राप्त कर सका। जिससे जीवन सफल हो सके।

 

मेरे नेत्र क्षण-क्षण में मेरी प्रतीक्षा में घाट जोहते जोहते नष्ट हो गये। मुझे ऐसी वेदना है कि मेरे मिलन बिना आनन्द नहीं।

कबीर कहते हैं कि समस्त संसार सुखी है जो भोग-विलास का जीवन व्यतीत कर अज्ञान रात्रि में सोता है। दुखी तो केवल एक कबीर है जो ज्ञान-प्राप्ति के लिए जग भी रहा है और प्रभु-मिलन के लिए रो भी रहा है।

विशेष -
(1) 'जलि गए' से शब्द-शक्ति उद्भव विरह की तीव्रता रूप वस्तु ध्वनित है।
(2) 'लोड़े' या 'लौरें' क्रिया का विकास संस्कृत पुल्लिंग 'लोडन' से प्रतीत होता है, जिसका अर्थ इधर-उधर चलना या लुढ़कना होता है।
(3) 'छिन छिन' में पुनरुक्तिप्रकाश तथा पूरी साखी में अतिशयोक्ति अलंकार है।
(4) संसारासक्त मनुष्य निश्चिन्त दिखाई पड़ता है, किन्तु भगवान का भक्त विरह में व्याकुल रहता है।
(5) अलंकार - अनुप्रास, अतिशयोक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश।
(6) भाषा - सधुक्कड़ी।

 

(9)

आइ न सकौं तुझ पैं, सकूँ न तुझ बुझाइ।
जियरा यौंही लेहुगे, विरह तपाइ तपाइ॥1॥
यहु तन जालौं मसि करौं, ज्याँ धूवाँ जाइ सरग्गि।
मति वै राम दया करें, बरसि- 'बुझावै अग्गि॥2॥
यहु तन जालौं मसि करौं, लिखौं राम का नाँउ।
लेखणं करूँ करंक की, लिखि लिखि राम पठाउँ॥3॥
इस तन का दीवा करौं, बाती मेल्यूँ जीव
लोही सींचौं तेल ज्यूँ, कब सुख देखौं पीव॥4॥
कै विरहणि कूँ मीच दे, कै आपा दिखलाई।
आठ पहर का दाझणां, मोपैं सह्या न जाइ॥5॥

शब्दार्थ - आइ न सकौं तुझ पैं = तेरे निकट आ जाने में असमर्थता है। सकूँ न तुझ बुझाइ = इतनी सामर्थ्य नहीं कि तुझे खींचकर अपने विचार के निकट बुला सकूँ। जियरा यौंही लेहुगे = क्या इसी प्रकार विरह में तड़पाते हुए प्राणों को हरते रहोगे। जालौं = जलाकर। मसि = स्याही, राख। सरग्गि = स्वर्ग, आकाश। यहु तन जालौं मसि करौं = शरीर जलाकर स्याही बना दूँ। राम का नाउँ = राम नाम। लेखणि करूँ = लेखनी चलाऊँ। करंक की = अस्थियों से। राम-पठाऊँ = राम के पास भेजूँ। मीच = मृत्यु। दाक्षणा = दग्ध होना, जलना।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'विरह कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत साखियों में कबीरदास जी ने विरहिणी आत्मा द्वारा परमात्मा रूपी प्रियतम की प्रतीक्षा और व्याकुलता का चित्रण किया है।

व्याख्या - कबीर विरहिणी की विवशता का वर्णन करते हैं कि विरहिणी अपनी व्याकुलता में प्रिय से प्रश्न करते हुए, शिकायत भरे स्वर में पूछती है। वह प्रश्न करती है कि उस तक पहुँचने का सामर्थ्य उसमें नहीं है और न ही इतना साधना-तप बल ही है कि उसे अपने तक खींचकर बुला सके, तब फिर क्या उसकी विरह व्यथा यों ही बनी रहेगी? क्या वह विरह में तपा तपाकर उसके प्राण हर लेंगे अर्थात् प्रेम क्षेत्र में क्या यह उचित अथवा नैतिक है।

कबीर की इस साखी में विरह अग्नि में तप्त विरहिणी अपने को जलाकर राख करने के लिए तत्पर हो जाती है। वह कहती है कि प्रिय राम की करुणा-प्राप्ति के लिए मेरी कामना यहाँ तक है कि मैं अपनी देह को विरह की आग में जला जलाकर राख कर दूँ। मेरे जलने से निकला धुँआ ऊपर आकाश में छा जाए। संभव है उस धुएँ को देखकर अपनी जीवात्मा प्रिया को विरह में जलता हुआ जानकर प्रिय राम करुणा की बारिश से उस विरह अग्नि को बुझाकर शांत कर दें। इस प्रकार विरहाग्नि से मुक्ति दिला दें।

प्रस्तुत साखी में कबीर ने प्रभु के प्रति भक्त के समर्पण को दर्शाया है। वियोग से मन इतना व्याकुल है कि उसकी पीड़ा की कथा प्रभु प्रिय के पास भेजने के लिए वे यहाँ तक तैयार हैं कि यह शरीर जलाकर उसकी स्याही बनायें और अस्थियों से कलम बनाकर श्रीराम का नाम लिख-लिखकर उसे राम के पास भेजें। तात्पर्य यह है कि इस करुण कथा को पढ़कर वे (प्रभु) उन पर कृपा करें और अपनी करुणा से उन्हें अनुगृहीत करें!

कबीर कहते हैं कि इस शरीर को दीपक बनाकर उसमें प्राण तत्त्व रूपी बाती डालकर उसे अपने रक्त से पोषित उसी प्रकार करूँ जैसे तेल जलाकर प्रकाश किया जाता है। इसके बाद भी देखता हूँ कि कब प्रिय का दर्शन कर पाता हूँ। कबीर के अनुसार, अध्यात्मक की भाव-भूमिका में प्रभु की कृपा प्राप्ति के लिए भक्त को स्वानुभूति के रूप में मोह-माया रूपी अंधकार को त्यागना होगा।

कबीरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! विरहणि की या तो जीवन लीला ही समाप्त कर दो या अपना स्वरूप-दर्शन दो। अब आठ पहर अर्थात् दिन-रात की यह वेदना मुझसे सहन नहीं हो पाती।

विशेष -

(1) इस साखी में विरहानुभूति की तीव्रता की सुन्दर एवं प्रभावशाली व्यंजना हुई है।
(2) इस साखी में प्रतीक्षा भाव की मार्मिक व्यंजना हुई है।
(3) इन पंक्तियों में यह संकेतित है कि भक्ति का मार्ग बहुत आसान नहीं है और इसके लिए स्वयं को ब्रह्म-भक्ति में पूर्णतया लीन कर देने की आवश्यकता होती है।
(4) इन पंक्तियों में विरह तीव्रता को ऊहात्मक रूप में अभिव्यक्ति मिली है। विराहाग्नि से उठे धुएँ को स्वर्ग तक पहुँचने पहुँचाने में कल्पना ऊहात्मकता को छू लेती है।
(5) वक्तृवैशिष्ट्य ध्वनि के रूप में आत्मा परमात्मा का सम्बन्ध व्यक्त हो रहा है।
(6) विप्रलम्भ श्रृंगार अपने लौकिक एवं अलौकिक दोनों धरातलों पर परिपक्व हुआ है।
(7) अनेक भाषाओं के मेल से बनी सधुक्कड़ी भाषा है।
(8) अलंकार अनुप्रास, अतिशयोक्ति, पुनरुक्तिप्रकाश।

 

(10)

गगन दमाँमाँ बाजिया, पड़या निसानै घाव।
खेत बहाऱ्या सूरिवै, मुझ मरणे का चाव॥1॥
जिस मरनें थैं जग डरै, सो मेरे आनंद।
कब मरिहूँ कब देखिहूँ, पूरन परमानंद॥2॥

शब्दार्थ - गगन = शून्य, ब्रह्माण्ड। दमाँमाँ = नगाड़ा। बुहाऱ्या = साफ किया। मरनैं = मृत्यु। थैं = से। मरिहूँ = मरूँगा।

सन्दर्भ - प्रस्तुत साखियाँ 'सूरातन कौ अंग' से संकलित हैं।

प्रसंग - कबीरदास द्वारा रचित 'सूर तन कौ अंग से उद्धृत प्रस्तुत साखी में कबीरदास कहते हैं कि साधक को विषयों के कलुष हटाकर आत्म शुद्धि करनी चाहिए।

व्याख्या - कबीरदास कहते हैं कि ब्रह्माण्ड में अनहदनाद रूपी नगाड़ा बज रहा है, क्योंकि भक्त की चोट अलक्ष्य पर पड़ रही है। साधक ने काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह की कलुषता को हटाकर मन के क्षेत्र को पवित्र कर लिया है। यह सब देखकर साधक के मन में संसार की माया से शुद्ध करके अहंकार को सर्वथा नष्ट करने का उत्साह जाग्रत हो रहा है।

कबीरदास कहते हैं कि जिस मृत्यु को दुःख का हेतु मानकर लोग उससे डरते हैं, वह मृत्यु मेरे लिए आनन्द का विषय है। मैं तो उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब मेरी मृत्यु आए और मैं पूर्ण आनन्दस्वरूप परमात्मा का दर्शन कर सकूँ।


विशेष -
(1) अलंकार - सम्पूर्ण साखी में अन्योक्ति अलंकार है।
(2) प्रतीकात्मक शैली है।
(3) जीवन मुक्त बनने की आकांक्षा की व्यंजना है।
(4) खेत बुहारना कामादि को नष्ट करना।
(5) नगाड़ा बजाना और निवास पर चोट गुरु के सदुपदेश के द्वारा वासनाओं से जूझने का आह्वान।
(6) भाव साम्य कबीर ने अन्यत्र भी कहा है -

अनजाने को नरक सरग है। जाने को कुछ नाहीं।
जेहि डर को सब लोग डरत हैं, सो डर हमरे नाहीं।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  2. प्रश्न- गीतिकाव्य के प्रमुख तत्वों के आधार पर विद्यापति के गीतों का मूल्यांकन कीजिए।
  3. प्रश्न- "विद्यापति भक्त कवि हैं या श्रृंगारी" इस सम्बन्ध में प्रस्तुत विविध विचारों का परीक्षण करते हुए अपने पक्ष में मत प्रस्तुत कीजिए।
  4. प्रश्न- विद्यापति भक्त थे या शृंगारिक कवि थे?
  5. प्रश्न- विद्यापति को कवि के रूप में कौन-कौन सी उपाधि प्राप्त थी?
  6. प्रश्न- सिद्ध कीजिए कि विद्यापति उच्चकोटि के भक्त कवि थे?
  7. प्रश्न- काव्य रूप की दृष्टि से विद्यापति की रचनाओं का मूल्यांकन कीजिए।
  8. प्रश्न- विद्यापति की काव्यभाषा का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (विद्यापति)
  10. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता एवं अनुप्रामाणिकता पर तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए।
  11. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो' के काव्य सौन्दर्य का सोदाहरण परिचय दीजिए।
  12. प्रश्न- 'कयमास वध' नामक समय का परिचय एवं कथावस्तु स्पष्ट कीजिए।
  13. प्रश्न- कयमास वध का मुख्य प्रतिपाद्य क्या है? अथवा कयमास वध का उद्देश्य प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  15. प्रश्न- पृथ्वीराज रासो का 'समय' अथवा सर्ग अनुसार विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  16. प्रश्न- 'पृथ्वीराज रासो की रस योजना का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  17. प्रश्न- 'कयमास वध' के आधार पर पृथ्वीराज की मनोदशा का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- 'कयमास वध' में किन वर्णनों के द्वारा कवि का दैव विश्वास प्रकट होता है?
  19. प्रश्न- कैमास करनाटी प्रसंग का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  20. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चन्दबरदायी)
  21. प्रश्न- जीवन वृत्तान्त के सन्दर्भ में कबीर का व्यक्तित्व स्पष्ट कीजिए।
  22. प्रश्न- कबीर एक संघर्षशील कवि हैं। स्पष्ट कीजिए?
  23. प्रश्न- "समाज का पाखण्डपूर्ण रूढ़ियों का विरोध करते हुए कबीर के मीमांसा दर्शन के कर्मकाण्ड की प्रासंगिकता पर प्रहार किया है। इस कथन पर अपनी विवेचनापूर्ण विचार प्रस्तुत कीजिए।
  24. प्रश्न- कबीर एक विद्रोही कवि हैं, क्यों? स्पष्ट कीजिए।
  25. प्रश्न- कबीर की दार्शनिक विचारधारा पर एक तथ्यात्मक आलेख प्रस्तुत कीजिए।
  26. प्रश्न- कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं। इस कथन के आलोक में कबीर की काव्यभाषा का विवेचन कीजिए।
  27. प्रश्न- कबीर के काव्य में माया सम्बन्धी विचार का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
  28. प्रश्न- "समाज की प्रत्येक बुराई का विरोध कबीर के काव्य में प्राप्त होता है।' विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "कबीर ने निर्गुण ब्रह्म की भक्ति पर बल दिया था।' स्पष्ट कीजिए।
  30. प्रश्न- कबीर की उलटबासियों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  31. प्रश्न- कबीर के धार्मिक विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  32. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कबीर)
  33. प्रश्न- हिन्दी प्रेमाख्यान काव्य-परम्परा में सूफी कवि मलिक मुहम्मद जायसी का स्थान निर्धारित कीजिए।
  34. प्रश्न- "वस्तु वर्णन की दृष्टि से मलिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत एक श्रेष्ठ काव्य है।' उक्त कथन का विवेचन कीजिए।
  35. प्रश्न- महाकाव्य के लक्षणों के आधार पर सिद्ध कीजिए कि 'पद्मावत' एक महाकाव्य है।
  36. प्रश्न- "नागमती का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि है।' इस कथन की तर्कसम्मत परीक्षा कीजिए।
  37. प्रश्न- 'पद्मावत' एक प्रबन्ध काव्य है।' सिद्ध कीजिए।
  38. प्रश्न- पद्मावत में वर्णित संयोग श्रृंगार का परिचय दीजिए।
  39. प्रश्न- "जायसी ने अपने काव्य में प्रेम और विरह का व्यापक रूप में आध्यात्मिक वर्णन किया है।' स्पष्ट कीजिए।
  40. प्रश्न- 'पद्मावत' में भारतीय और पारसीक प्रेम-पद्धतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।' टिप्पणी लिखिए।
  41. प्रश्न- पद्मावत की रचना का महत् उद्देश्य क्या है?
  42. प्रश्न- जायसी के रहस्यवाद को समझाइए।
  43. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जायसी)
  44. प्रश्न- 'सूरदास को शृंगार रस का सम्राट कहा जाता है।" कथन का विश्लेषण कीजिए।
  45. प्रश्न- सूरदास जी का जीवन परिचय देते हुए उनकी प्रमुख रचनाओं का उल्लेख कीजिए?
  46. प्रश्न- 'भ्रमरगीत' में ज्ञान और योग का खंडन और भक्ति मार्ग का मंडन किया गया है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  47. प्रश्न- "श्रृंगार रस का ऐसा उपालभ्य काव्य दूसरा नहीं है।' इस कथन के परिप्रेक्ष्य में सूरदास के भ्रमरगीत का परीक्षण कीजिए।
  48. प्रश्न- "सूर में जितनी सहृदयता और भावुकता है, उतनी ही चतुरता और वाग्विदग्धता भी है।' भ्रमरगीत के आधार पर इस कथन को प्रमाणित कीजिए।
  49. प्रश्न- सूर की मधुरा भक्ति पर अपने विचार प्रकट कीजिए।
  50. प्रश्न- सूर के संयोग वर्णन का मूल्यांकन कीजिए।
  51. प्रश्न- सूरदास ने अपने काव्य में गोपियों का विरह वर्णन किस प्रकार किया है?
  52. प्रश्न- सूरदास द्वारा प्रयुक्त भाषा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- सूर की गोपियाँ श्रीकृष्ण को 'हारिल की लकड़ी' के समान क्यों बताती है?
  54. प्रश्न- गोपियों ने कृष्ण की तुलना बहेलिये से क्यों की है?
  55. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (सूरदास)
  56. प्रश्न- 'कविता कर के तुलसी ने लसे, कविता लसीपा तुलसी की कला। इस कथन को ध्यान में रखते हुए, तुलसीदास की काव्य कला का विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- तुलसी के लोक नायकत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- मानस में तुलसी द्वारा चित्रित मानव मूल्यों का परीक्षण कीजिए।
  59. प्रश्न- अयोध्याकाण्ड' के आधार पर भरत के शील-सौन्दर्य का निरूपण कीजिए।
  60. प्रश्न- 'रामचरितमानस' एक धार्मिक ग्रन्थ है, क्यों? तर्क सम्मत उत्तर दीजिए।
  61. प्रश्न- रामचरितमानस इतना क्यों प्रसिद्ध है? कारणों सहित संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
  62. प्रश्न- मानस की चित्रकूट सभा को आध्यात्मिक घटना क्यों कहा गया है? समझाइए।
  63. प्रश्न- तुलसी ने रामायण का नाम 'रामचरितमानस' क्यों रखा?
  64. प्रश्न- 'तुलसी की भक्ति भावना में निर्गुण और सगुण का सामंजस्य निदर्शित हुआ है। इस उक्ति की समीक्षा कीजिए।
  65. प्रश्न- 'मंगल करनि कलिमल हरनि, तुलसी कथा रघुनाथ की' उक्ति को स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- तुलसी की लोकप्रियता के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  67. प्रश्न- तुलसीदास के गीतिकाव्य की कतिपय विशेषताओं का उल्लेख संक्षेप में कीजिए।
  68. प्रश्न- तुलसीदास की प्रमाणिक रचनाओं का उल्लेख कीजिए।
  69. प्रश्न- तुलसी की काव्य भाषा पर संक्षेप में विचार व्यक्त कीजिए।
  70. प्रश्न- 'रामचरितमानस में अयोध्याकाण्ड का महत्व स्पष्ट कीजिए।
  71. प्रश्न- तुलसी की भक्ति का स्वरूप क्या था? अपना मत लिखिए।
  72. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तुलसीदास)
  73. प्रश्न- बिहारी की भक्ति भावना की संक्षेप में विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- बिहारी के जीवन व साहित्य का परिचय दीजिए।
  75. प्रश्न- "बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है।' इस कथन की सत्यता सिद्ध कीजिए।
  76. प्रश्न- बिहारी की बहुज्ञता पर विचार कीजिए।
  77. प्रश्न- बिहारी बहुज्ञ थे। स्पष्ट कीजिए।
  78. प्रश्न- बिहारी के दोहों को नाविक का तीर कहा गया है, क्यों?
  79. प्रश्न- बिहारी के दोहों में मार्मिक प्रसंगों का चयन एवं दृश्यांकन की स्पष्टता स्पष्ट कीजिए।
  80. प्रश्न- बिहारी के विषय-वैविध्य को स्पष्ट कीजिए।
  81. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (बिहारी)
  82. प्रश्न- कविवर घनानन्द के जीवन परिचय का उल्लेख करते हुए उनके कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  83. प्रश्न- घनानन्द की प्रेम व्यंजना पर अपने विचार व्यक्त कीजिए।
  84. प्रश्न- घनानन्द के काव्य वैशिष्ट्य पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- घनानन्द का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  86. प्रश्न- घनानन्द की काव्य रचनाओं पर प्रकाश डालते हुए उनके काव्य की विशेषताएँ लिखिए।
  87. प्रश्न- घनानन्द की भाषा शैली के विषय में आप क्या जानते हैं?
  88. प्रश्न- घनानन्द के काव्य का परिचय दीजिए।
  89. प्रश्न- घनानन्द के अनुसार प्रेम में जड़ और चेतन का ज्ञान किस प्रकार नहीं रहता है?
  90. प्रश्न- निम्नलिखित में से किन्हीं तीन पद्याशों की शब्दार्थ एवं सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (घनानन्द)

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